Friday, September 30, 2011

8.तैंतीस प्रतिशत आरक्षण




तैंतीस प्रतिशत आरक्षण



गाँधी तुने भारत को तो स्वतंत्र किया

पर बा क्या तुने नारी के बारे में सोंचा

तू सीता बन पीछे पदचिन्हों पर चलती रही

पर क्या पथदर्शक बन आगे बढ़ाने का सोंचा

पचास बरसों की स्वतंत्रता की सोंधी खुशबू

क्या हर एक के नस नस में समा सकी

वही स्तर वही परतंत्रता का आभास  लिए

वही पिता से होती हुई पति के घर की धूरी

बेटे के इर्द गिर्द घुमती आकर  खतम हुई

बिना सहारे  निर्बल अबला सी हो परिभाषित

कमजोर ,असहाय दया की पात्र सी आँकी गई





बा तुने कुछ कदम अकेले चलना सिखाया होता

कुछ साहस कुछ आत्मविस्वास जगाया होता

बहुत कुछ कर दिखाया हमनें

कुछ कदम चलकर भी बतलाया हमनें

फिर भी परतंत्र रहीं हम,अँगरेजों की न सही,

अपने इर्दगिर्द खिचीं सामाजिक परिधि की

कुछ मूक है, कुछ बेबाक

पर परतंत्रता की परिधि लाँघने का साहस नहीं

बा तू आई चली गई!

इंदिरा आई चली गई!

पर स्वतंत्रता अपरिभाषित रही !!



  समाप्त 


Thursday, September 29, 2011

7.समय के उस पार






समय के उस पार



चल चलो खुद को लिए उस पार  दिन के ,

कालपथ के स्वेत कण नेह आंचल में समेटे  I




छोड़ पीछे सिन्धुजल में प्रेम वसुधा स्नेह मोती , 

छोड़ नन्ही उंगलियाँ,खुद में समेटा अंक ज्योति I

वो याद मीठी ,रसभरी ,स्नेह की कोमल शिराएँ 

वो स्नेह छाती में धधकती व्यर्थ चिंता तर्क आहें I




कुछ लकीरें उम्र की,गुजरे समय का रससत्व लेकर,

पृष्टभूमि में बचा कुछ स्वर्णयुग का अंश लेकर I

कुछ वक्त तो मुझको लगा ,ताल की घड़ियाँ बदलने ,

फिर रास आया ,जीवत्व की विस्मयभरी कड़ीयाँ सँवरने I




कुछ था जो अंकित विगत,आंचल में समेटे ,

कुछ छोड़ कड़वी,बात मीठी चल दी  लपेटे I

जो स्नेहवसुधा में निहित, वो सब था समर्पित ,

अश्रुकण से धो के मानस, तुम को मैं थी अर्पित I




राह सबकी है अलग,सब पुष्प विकसित हो रहे हैं,

अब सितारे मुक्त अम्बर में नजर से खो रहे हैं I

शायद अकेले भय लगे,पर हो कंही हम साथ होंगे ,

पहचान होंगी उनकी अपनी,आप खुद पहचान होंगे I 





हैं ठहाकें घुल रहे,होठों का कंपन रास आया,

जी उठी मै फिरसे युगमें सम्मुख समयका भास आया I

परछाईयों पीछे रही मै अग्र-पथ पर चल पड़ी  हूँ ,

अभिनीत लौ की रौशनी में मोम सी पिघल रही हूँ I




ले उषा की चंद किरणें तिमिरधन के घण क्षितिज पर,

चल समेटे विगत आयु ,स्वप्न के अभिनव सतह पर I 

मै रहूँगी ,मन प्रिय, हर पल तुम्हारा साथ होगा ,

स्नेह धागों में पिरोया मोतियो का अनोखा हार होगा I



समाप्त




6.तुम बिन





तुम बिन


हर ओर मुझे क्यों सूनापन

चहु दिश सन्नाटा लगता है ,

तुम पास नहीं तो ए प्रियवर

जाना,अनजाना  लगता है I


मूक भई मैं स्वर भी जड़ -जड़ 

नैनों ने भी प्रतिशोध किया ,

वाणी    सुन  मैं   वायु  की

भंगुरतन ही घायल लगता है I


कोयल की नेह भरी वाणी क्यों 

कानों में शोर मचाती   है ,

मै मौन भई ,मेरा अंतर्मन

जाने क्यों बेगाना लगता है I


आने  की हल्की आहट भी

स्पंदन बढा देती दिल का,

आकर्षण  भरे निमंत्रण  पर

हर प्रात सुनहरा लगता है I



तुम तेजशर बनआओ तिमिरमन में 

मैं  प्रात  उषा  बन  नाचूँगी,

तुम हाथ  धरो , मै  वर  पाऊ

अभिनीत जग जीवन लगता है I


तुम अदभुत स्वप्न बने आओ

मै   राह   निहारें   बैठीं   हूँ ,

हम साथ गगन में उड़ जाये 

सौहार्द्   आमंत्रण   लगता   है I


चिर -सहचर प्राण प्रिये मेरे

तुम साध भये मै मन वीणा ,

तारों के झंग्कृत  कंपन से

काया-मन पुलकित लगता है I




समाप्त 

5.मानव और प्रदुषण




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मानव और प्रदुषण



चलीं मैं सफर पर नहीं साथ कोई

है पथरीली राहें मंजिल पहाड़ों की चोटी


उबड़ खाबड़ रास्तों पर गुम सुम चलती रहीं मैं

मगर जब मैं पहुँची कोई चोटी नहीं थी

था समतल सा कुछ पर मंजिल नहीं थीं

ना थी घड़ियों की टिकटिक न था जीवन का करतव

ना ही पतझड़ का मौसम न ही सावन का आलम

ना थी  बूंदों की रिमझिम ना ही ठंडी हवाओं की ठंडक

ना ही  लू की तपती हवाओं में जलता हुआ तन





सभी मौन थें
!
हवा मौन थीं
!
नभ मौन था 
!
धरा मौन थी 
!



ये चुप्पी भी मानव तेरी देन है

तेरा ही खेला सभी खेल है 

तुने ईश्वर की देन को किया अस्त वस्त

सारी संस्कृति सारी सभ्यता को किया ध्वस्त

विज्ञानं कह कर सभी कुछ को बदला

मानव प्रकृति मगर क्या तू बदला



ऐ मानव संभल कही हो न विलम्ब

प्रदुषण को रोक प्रकृति बचा .......................

4.ज्योति किरणें






ज्योति किरण


मैं प्रात उषा की कोमल किरणें

बैठ  मिली निद्रित जल कण से,

नाच उठी तरु पल्लव मणिका

नव आलोक के प्रथम मिलन से  .

मैं प्रात निशा के संधि काल में

ले चंद दरारें रात प्रलय की ,

साध हिय  में दनुज  खरोंचे

ज्योतिर्मय पहुँची पास धरा के .

मै  अबोध नारी , करुणामयी

पीर समाये तम व्यथित व्योम की ,

प्रलय- सृजन के संधि काल में

साक्ष  बनी उत्कण्ठ मिलन की .  

घन आविष्ट अम्बर से होकर

मै दीप्त –प्रभा पर्वत पर पहुचीं,

बीहड़  गहन अरण्य में घुलकर

पुहुप के कंचन तन पर थिरकी .



पुलक भरा स्पंदन पाकर

किलक उठी मंजरी चहा कर ,

नैनों में कुसमासन भर के

भवरों को न्योता इठलाकर .



प्रात प्रभा का अमिय रस पाकर

निशा यामिनी के अलकें खोलीं,

मृदुल हिलोरें वात- अनिल की

रैन ,दिवा के संग- संग डोली .



अलि अलकों से निरखा भू ने

सरिता ने  पलकों पर थामा ,

जा बैठीं  सानिध्य  पवन के

रवि किसलय सर्वव्याप्त समाया .





मानस थिर था पलकें मूंदे

शायद  सपनों में जी पाए ,

कर्म- क्षेत्र के कठीन सुरों में

रात्रि स्वप्न सुर फिर धुल जाएँ. 


कुछ धुँधली यादें बचपन की

जब सपनों में दस्तक देंती ,

प्रात उषा की थाप लिए भी

मन देर दिवा तक अक्सर सोती .



उदय प्रात की ज्योतिर किरणें

काश समाहित हो मानव में
,
रोष दर्प ,मिथ्या  जीवन भी

फिर राग सुनाये कंचन सुर में  .



समाप्त

Wednesday, September 28, 2011

3.हम


हम 


कुछ कण क्षितिज पर अव्यवस्थित

क्या तआ॒जुब हो ,गर वो गुम हुये




वो रात सपनों का आना,भोर में उनका खो जाना

बस कुछ रात्रि स्वप्न सुर ,जो प्रात दिवा में गुम हुये



न कोई दहशत, न खुद के खोने का ड

आते जाते सड़कों की भीड़ में ,हम गुमनाम गुम हुये



कुछ बुझें संवाद, कुछ अनकहे संबोधन

कोई ग्रन्थ कोई संग्रह नहीं ,क्या हुआ गर गुम हुये



कभी चित्कार कभी कहकहे ,क्रंदन, डरना

सब यहीं कहीं हवा में घुल कर  सांसों में गुम हुये



 कभी फूलों पर अटखेलियाँ,खुद पे इतराना

ओस के चंद कतरें मिल बूंद बने, फिर गुम हुये



लम्हा लम्हा अपने सहारे के कर्जदार बनें

किस्त दर किस्त कर अदायगी फिर गुम हुये



खुद जलकर रोशनी को जलाने का अहसास

बूझकर आँधी में जलने की शिद्दत में गुम हुये




आओं कोई मुठ्ठियों में भीजों मुझें

कण कण समेट बूँद सदृश बंनाओ मुझें

मै हूँ, मेरे होने का अहसास कराओं मुझें


ढीली पड़ी जो मुठ्ठियाँ फिर ना कहना जो हम गुम हुए . 



2.घर









घर 


जब मैं चौराहे पें पहुँची,
घर का पता मुझको नहीं था............


बन के कोपल मैं खिली थी

मातृत्व के कोमलशिखर पर .

बाप  की उँगलियाँ धरे मैं

चलदी फिर नूतन सफर पर .

धक्का –मुक्की , रेलम- पेला

हो के हर पहलू से चल दी .

भाव मीठे,कोमल हृदय मन

कर के सब उत्सर्ग चल दी .

कुछ पाके मोती सिन्धुजल में

मन हुआ आस्वस्त जबकुछ .

ना थाह थी न निशा बचें थे

चढ चुका था अर्घ्य सब कुछ .

मेरा  हृदय अब था  अकेला

मन तृषा  फिर भी बचीं थी .

साथ  हो  लूं   उत्कंठ इक्छा

आ  के  चौराहे  खड़ी  थी .


जब मैं चौराहे पें पहुँची,
घर का पता मुझको नहीं था............


प्रथम संध्या के अरुणदृग पर

फिर मिला सुकुमार सहचर .

बंधके  नूतन  आवरण  में

मैं चली मृदु नवपल्लव सजानें .

मैं  समय पर थी निछावर

प्राण  प्राणों  से  मिले  थें .

काल के अभिनव क्षितिज पर

प्रात  मुखरित  हो रहे थे .

पर  दबी  मैं कर्ज से थी

देहधर्म था मुझको निभाना .

जा  निहारा  आसमां को

था रतन अनमोल पाना .

बढ़ के आंचल में संजोया

मूक भावना से बंधी थी .

थामें नवजीवन  की पोरें

बीच  चौराहें  खड़ी थी .


जब मैं चौराहे पें पहुँची,
घर का पता मुझको नहीं था............


बेरोक जीवन के सफर की

स्वयं  पथ-निर्देशिका थी .

स्नेह कण सब बिखरे पड़े थे

उनकी  मैं परिचालिका थी .

सिन्धु,  जल धारा बनी मैं

उत्पल कुसुम मुझमे समाया .

कर मुक्त जीवन के हुईं मैं

सागर समग्र जब व्योम आया .

ढोकर धरोहर संस्कृति की

कंधे हमारे थक चुके थे .

स्वर्णिम किरण अब भास्कर के

तम  के अंदर धँस परे थे .

कुछ देर बैठी,खुद को पाया

सम्मुख चौराहा पड़ा  था .

रास्तों  को  जानती  थीं

घर का पता पर खो गया था .


जब मैं चौराहे पें पहुँची,
घर का पता मुझको नहीं था............


जड़-जड़ बदन जब छीजता था

मस्तिस्क उर्वरक हो रही थी .

क्षिति अप तेज मरू व्योम निर्मित

तन, का मोह अब खो चुकी थी .

इस  धरा  के रिश्ते –नातें

थामता  मेरे  कदम  को .

पर चैत्यपुरुष की मित्रता का

आस ले चला है  मुझको  .

सीमा-रहित आकाश के पर

बादलों  में घर छुपा  है 

तन का अब सन्ताप छोड़े

मन सफर पर बढ़ चला है .

काल क्षितिज के उस पर कोई

मेरी  प्रत्याशा  में  होगा .

पूरा सफर कर जब मै पहुँचूं

चिर शांत ,चेतना में लीन होगा .

समाप्त 

1.हिंदी हमारी भाषा





हिंदी हमारी भाषा 



 भारत  के इस पाक भूमि पर 

कुछ शब्द लिखे हैं अपरिचित 

अपशिष्ट  विचार 

तनाव ग्रस्त  संस्कृति

हिंदी गुम है चिरपरिचित 

अकुलाता  मानव

 छटपटाती  भीड़

उच्चारण हैं अस्फ़ुटित 

राष्ट्र के बोझिल कंधो पर 

हिंदी दुबकी सहमी 

आह !

हाहाकार ,चीत्कार 

पर करती आत्मसात

कैसी वेदना !

कैसी आह ! 

कर गया अनदेखा हर कोई 

आधुनिकता के छलावे में 

हिंदी बैठीं  हैं 

अपरिचित 


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