Monday, August 29, 2016

30.रिश्तों की महाभारत

क्यों ??
केशव !!!
हर बार तुम्ही
गीता का उपदेश सुनाकर
करुक्षेत्र रचवाते हो ,
नहीं चाहिए ऐसी धरती
जहाँ तुम महाभारत करवाते हो |
रिश्तों की फिर द्युत- क्रीड़ा में
अपना सब कुछ हम हारे,
कल था जो सरल सहोदर अपना
युद्ध क्षेत्र में समक्ष खड़े |
मृत्युभूमि के इंद्रप्रस्थ पर ,
नित नूतन करतब दिखलाते हो
नहीं चाहिए ऐसी धरती,
जहाँ तुम महाभारत करवाते हो |
फिर अर्जुन ने गांडीव उठा कर
अपनों पर प्रहार किया
काल बना निरंकुश इतना
अपनों ने ,

अपनों का संहार किया
शांति दूत तुम बनो कन्हैया
क्यों !!
पश्चयाताप की अग्नि में हमे झुलसाते हो
नहीं चाहिए ऐसी धरती,
जहाँ तुम महाभारत करवाते हो |
अगर नहीं यह अपना सबकुछ
चक्रव्यूह क्यों रचता है ,
फिर क्यों हर बार कुरुक्षेत्र में 
कोमल अभिमन्यु मरता है |
सूतपुत्र के कुल विराग पर
तुम क्यों धर्म वाण चलवाते हो
नहीं चाहिए ऐसी धरती,
जहाँ तुम महाभारत करवाते हो |
हैं अगर यह उद्घघोष विजय का
अश्रुधार क्यों बह निकले ,
अपनों के शव ले काँधें पर
आज युधिष्ठिर क्यों रोये |
है अगर ,अधर्म की पट्टी आँखों पर
उनको क्यों नहीं खुलवाते हो
नहीं चाहिए ऐसी धरती,
जहाँ तुम महाभारत करवाते हो |
सृजन किया जो तूने मानव 
अहं स्वार्थ फिर क्यों डाला ,
काल रहा निरंकुश इतना
महाभारत ही रच डाला ?
हिय तेरा क्यों निष्ठुर इतना
मंद मंद मुस्काते हो
खंड विखंडित मनोदशा पर
फिर भी प्रहार करवाते हो |
रिश्तों की इस परिपाटी पर
एक बार फिर  हमसब लहूलुहान हुए
जय पराजय की इस द्यूत- क्रीड़ा में
अपना सर्वस्व ही हार गए
बड़ा प्रश्न चिन्ह ये जीवन अपना
वानप्रस्थ का द्वार स्वतः दिखलाते हो
नहीं चाहिए ऐसी धरती,
जहाँ तुम महाभारत करवाते हो |
नहीं चाहिए ऐसी धरती,
जहाँ तुम महाभारत करवाते हो |

29.जिंदगी


जिंदगी,
 नाराज कहाँ थी तुमसे
बस जीने का तर्जुबा कुछ अच्छा ना रहा
जितना ही जज्वां ए जुम्विश थामाँ तुझको
वेमुर्रबत मेरे हाथों से फिसलता ही गया
ओ मेरे सब्र का बाँध था,
दहलीज के किनारों को उजड़ने ना दिया
वरना वक़्त के थपेडों ने
क्या कोई कसर छोड़ी थी
रात की स्याह में
चांदी के उभरने का गुमा,
ओ तस्सली भी 
मुझमें आज कहीं चूक गयी
उभर आएं चन्द सुराखे मेरे कोरों से
ये उठा सैलाब ,
मेरे दामन को ज़ार-ज़ार किया
बड़ी ख्वाहिश थी,
मेरी फिक्र को अपने पोरों पर
इख्लाश से समेटेगा कोई,
मैं वहीँ जिंदगी को अपना किराया देकर,
सागर के संग संग हो लुंगी I

इख्लाश (love,affection)
जुम्विश (गति)

28.एक बार फिर



कहने सुनने का वक्त कहाँ था
भाग रही थी सरपट सड़के
आज अभी इस वीराने में
फिर ले आओ चन्द सितारें
स्याह अँधेरी इन रातों को
इक जुगनू रौशन कर जाये I
रख छोड़ी थी चन्द कौड़ियां
सिरहाने से,तुम ले आओ
बाल शुलभ फिर चंचल मन से
मेरे अंतर्मन को तुम, सहलाओ
चन्द मोतियाँ,मेरे होंठो से छन कर
तेरे दामन को तर कर जाए I
टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी पड़ी मैं
हर हिस्सों के सौ सौ खिस्सें
जीवन की आपा धापी में
मेरा सब कुछ पीछे छूट चूका है
आज समेटो मुझको इतना
हम 
आज यही पर
" मैं"
  बन जाऊ I