Sunday, November 13, 2011

15.बचपन






बचपन


मेरा बचपन ,मेरे  झूले   
जीवन की आपाधापी में
मोहमयी माया के भ्रम में
हम अपना अल्हड़पन भूले 
उषा ज्योत्ष्णा की मयुख प्रभा जब
खोल खिड़कियाँ तन पर छनती
उनिन्द्र चक्षु कों कस कर भीजें
न जगने  की मै हठ करता
अन्तःस्तल के अजस्त्रस्नेह से
अम्मा जब बाँहों में लेती
मातृत्व के स्पर्श से पुलकित
आँचल में छुप जाया करता
पलक संपुटों में कौतुक भरकर
जीवन दिगंत निहारा हमने
विस्मित होकर पट सीपी में
उज्जवल मोती ढूंढा करता
अक्षय धन थी चंद कौडियाँ
दर्प भरा अवनीपति था मैं
द्वंद पराजय मान्य न मुझको
स्निग्ध करुण नयनों से तकता
अम्बर घन की तरल कणें जब
बह घुटनों तक हमें भिगोती
नन्ही कागज की तरणी पर
स्नेह संदेशें भेजा करता
तरल हृदय की सूक्ष्म तरंगें
चाँद के जैसी स्वच्छ वितान सी
भूल-भ्रांति से हो मन विप्लव
भय अधीर हो जाया करता
उद्वुद क्षितिज पर रात निशा जब
श्याम छठा की माया रचती
तरत-तारिका कों भर कौतुहल
निज अभिलाषा निरखा करता
स्पर्श मलय की चंद थपकियाँ
स्वेत मसहरी पूर्ण चाँद की
परीकथा सुन श्रुति विभोर मन
अंतरिक्षलोक उड़ जाया करता
ना जीवन से लड़ने का डर
ना रिश्तों की खींचातानी
सुख का संग्रह था वो बचपन
काश समय थम जाया करता

साथ जो छुटा सरस बचपना
निज स्वार्थ स्पर्धा पथ पर बढ़ आयें
निर्मल जीवन का अर्घ्य चढ़ा कर
मन अजिर, तन रोया करता
अन्तर मन कों मथ कर मैनें
व्यग्र उतप्त सा ये चित पाया
छद्मवेश निज ,द्विधा विषाक्त सी
अधः पतन की गाथा वचता
स्मृतियों में संचित छाया भी
कहाँ मेरे संग पग-पग चलती
राह अकेला ,भामित दिशा मैं
मृषा ,विभ्रम राहों कों तकता
जीवन जीने की मर्म वेदना
यदा कभी मन कों भरमाती
बैठ,अतीत के सुख बचपन की
मन ही मन दुहराया करता


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