Wednesday, December 6, 2017

37.धरा

" भारत "
मैं भूखंड,
मेरी माटी में समाहित
सुदृढ़ संस्कृति की जोश वाणी
सुन सको तो तुम भी सुनलो
आज गाथा चिरपरिचित पुरानी
स्वेत ध्वज शीर्ष मेरा
शान से शिरस्थ गगन को छूता
मुक्त व्योम का छवि फिर
मेरे अंचल को भिगोता
जब हुआ बेकल कभी मन
शीर्ष धारित गंगा को उतारा
भूखंड के सूखे जलज को
अमृत कण से धो ही डाला
शीर्ष उन्नत
मधुर स्त्रोत वाणी समाहित
राग द्वेष भाव से पृथक होकर
मैनें थामी सदृश नश्वर काया
यत्र तत्र बिखरा पड़ा था
मैनें अपने में समेटा
हो विजयी या हो पराजय
मध्य कुरुक्षेत्र मैं ही खड़ा था
मैंने दृढ़ प्रतिज्ञ हो कर
सत्य की ही बाँह थामी
थी समय की राह लंबी
काल चक्र चलता रहा था
मेरी कोख से जन्म ले कर
युग पुरुष बनता रहा था।