Monday, September 24, 2018

44.नव जीवन





ये मेरा अंतर्मन
क्यो आज ये मुझसे पूछ रहा है
क्यो बैठे गुमसुम से तुम हो
उठो ,आज फिर चलना है
ये मेरा...
पथ जो पीछे छूट चुका था
स्वर्णिम था ,अब क्या करना है
फूल बिछे थे जिन रस्तों पर
अब कलियों को क्यो चुनना हैं
ये मेरा ...
क्या रिश्तें थे क्या थे नातें
सब कुछ लगते आज पराये
आज चलो फिर नए सिरे से
नव नूतन एक जहां बसाये
ये मेरा...
जग जीवन का सत्य यही है
जब तुम खुश हो, जहाँ खुशी है
बहतें आसूँ का मोल कहाँ अब
अपने मन को तुम खुद समझाओ
ये मेरा...
जीवन की घड़ियाँ अब कम हैं
क्यो रोते हो तुम उठ जाओ
अपनी खुशियो को भर मुठ्ठी में
जीवन पथ पर दौड़ लगाओ
ये मेरा अंतर्मन
क्यो आज ये मुझसे पूछ रहा है
क्यो बैठे गुमसुम से तुम हो
उठो ,आज फिर चलना है
ये मेरा...

43.हमारी सीता




हमारी सीता
ना जय की ,ना विजय की
ना भोग विलाश ,ना प्रलोभन की सीता
ना प्रेम वासना की सीता,
ना पुरुस्तव की सीता
सीता खुद की सीता
हर एक नारी की सीता
नारी सशक्तिकरण के
आगाज़ की सीता
हमारी सीता।।
जनक की गोद में बैठ
शाश्त्रार्थ करती
तर्क वितर्क में गुुणी जनों को
परास्त करती सीता,
हमारी सीता ।
किसकी सीता,
राम की?
जिसके साथ सामाजिक डोर से बंधी
जंगल जंगल विचरती सीता
स्वर्ण हिरण की इक्षा दिखला कर,
प्रेम ,पुरुस्तव को आँकती सीता
एक कुश को शस्त्र बना कर
नक्षत्र पतन के क्षण में
स्वयं की रक्षा करती सीता
अग्निकुंड से सहज निकल कर,
खुद का दंभ दिखलाती सीता
लोक लाज से डरनेवाले
पुरुषोत्तम को
स्वतः त्याग कर
अपने खुद के होने का
विश्वास दिलाती सीता
सकल व्यवस्था देख जगत की
आह चित्कार कराहती सीता
चिर दग्ध दुःखी
तीक्ष्ण नुकीले लव कुश से
वाण चलाती सीता
हुआ प्रतिकार असहय अब
धरा में स्वयं समाती सीता
मानसिक पतन के जीवन लय में
हर नारी की आवाज उठती सीता
हमारी सीता ।
हमारी अपनी सीता

42.दोस्ती

दरिया रोज मिलती

उस झुके पीपल के शाख से

चूमती उसे ,धीरे धीरे थपकियाँ देती

शाख दर्प से लहलहाती ,झूमती

मीठे स्वर में गीत गुनगुनाती

दोनों यूही मिलते,

घंटो हाथों में हाथ डाले

अपना सुख दुख बाँटते

एक दिन दरियाँ के कोने बंजर हो गए

जो कुछ बचा ओ संभाले

ओ कहीं और चल निकली

शाख ने इंतजार के रस्ते देखें

ना जाने कितने दिन गिने

कितनी रातें आंखों में गुजारी

सुख कर स्याह पर गयी

सूखे पत्तों को गुजरते देखा

मिलने की चाह लिए ,

उनके साथ वह निकली ।।

41.दरियागंज

हो अगर वक़्त तो ,

छुट्टियों के चंद लम्हे,

सुनहरी धूप जाड़ों की ,

पतली तंग गलि

याँ

दरियागंज की,

किताबों की खुशबू,

के बीच से गुजरती अपनी चाहत

कभी ना लौटने की ख़्वाहिश

उन काली स्याह अक्षरों में,

जिंदगी दबी है ,

बस ढूढ़ने का हो जज्बा ।

40.राख़

राख़ की ढेर हुँ,

मत तेज हवा तुम करना,

ओ जो दफ़्न है अब तक मुझमें

ना सुलग जाए फिर से ।

कुछ बूंदे तुम अपनी खामोशी की,

गर टपका सको तो ,

मुझ पर मेहरबानी होगी ।

वरना क्या आप,

आप की अजमाइशें,

मेरे इख्लास को,

बिन छुए गुमनाम गुजर जाएगी।

39.तुम भी क्या जिंदगी

ना इतने जख्म दे जिंदगी

की तेरे दर्द में भी मजा आने लगे,

फिर तेरी पोटली में बंधी खुशियां भी

तूझको मुँह चिढ़ाने लगे ।

चूक जायेगी तेरी अजमाइशें,

जब तेरी जिल्लत में भी मजा आएगा ।

अपनी करनी पर खुद पशेमान होकर,

मेरी फुरकत का फ़तवा तू मुझे सुनाएगा ।

ये सज़ा थी या  जश्ने इनाम मेरे लिए ,

ये सोच सोच के फुर्सत में तू पछतायेगा ।।

38.साँसे

जिंदगी तेरी रफ्तार में कहाँ अब मेरे कदम चलते हैं,

अब ठहर लूं तो सुकून मिल जाये

थोड़ा थम के अपनी साँसों से

गुफ़्तगू कर लूं,

ना जाने कब कहाँ ये जालिम मुझसे किनारा कर ले

फिर ना रह जाए मलाल

तुझको टोका ही नही,

दो घड़ी रुक के तेरे आगोश सोयी भी कहाँ ।

क्या करूँ जालिम तुमने ही भगाया हर पल,

तुझको थामु कैसे

तू हर पल मुझसे आगे निकल जाती है।।