क्यो आज ये मुझसे पूछ रहा है
उठो ,आज फिर चलना है
ये मेरा ...
सब कुछ लगते आज पराये
जब तुम खुश हो, जहाँ खुशी है
अपने मन को तुम खुद समझाओ
जीवन पथ पर दौड़ लगाओ
ये मेरा...
दरिया रोज मिलती
उस झुके पीपल के शाख से
चूमती उसे ,धीरे धीरे थपकियाँ देती
शाख दर्प से लहलहाती ,झूमती
मीठे स्वर में गीत गुनगुनाती
दोनों यूही मिलते,
घंटो हाथों में हाथ डाले
अपना सुख दुख बाँटते
एक दिन दरियाँ के कोने बंजर हो गए
जो कुछ बचा ओ संभाले
ओ कहीं और चल निकली
शाख ने इंतजार के रस्ते देखें
ना जाने कितने दिन गिने
कितनी रातें आंखों में गुजारी
सुख कर स्याह पर गयी
सूखे पत्तों को गुजरते देखा
मिलने की चाह लिए ,
उनके साथ वह निकली ।।
हो अगर वक़्त तो ,
छुट्टियों के चंद लम्हे,
सुनहरी धूप जाड़ों की ,
पतली तंग गलि
याँ
दरियागंज की,
किताबों की खुशबू,
के बीच से गुजरती अपनी चाहत
कभी ना लौटने की ख़्वाहिश
उन काली स्याह अक्षरों में,
जिंदगी दबी है ,
बस ढूढ़ने का हो जज्बा ।
राख़ की ढेर हुँ,
मत तेज हवा तुम करना,
ओ जो दफ़्न है अब तक मुझमें
ना सुलग जाए फिर से ।
कुछ बूंदे तुम अपनी खामोशी की,
गर टपका सको तो ,
मुझ पर मेहरबानी होगी ।
वरना क्या आप,
आप की अजमाइशें,
मेरे इख्लास को,
बिन छुए गुमनाम गुजर जाएगी।
ना इतने जख्म दे जिंदगी
की तेरे दर्द में भी मजा आने लगे,
फिर तेरी पोटली में बंधी खुशियां भी
तूझको मुँह चिढ़ाने लगे ।
चूक जायेगी तेरी अजमाइशें,
जब तेरी जिल्लत में भी मजा आएगा ।
अपनी करनी पर खुद पशेमान होकर,
मेरी फुरकत का फ़तवा तू मुझे सुनाएगा ।
ये सज़ा थी या जश्ने इनाम मेरे लिए ,
ये सोच सोच के फुर्सत में तू पछतायेगा ।।
जिंदगी तेरी रफ्तार में कहाँ अब मेरे कदम चलते हैं,
अब ठहर लूं तो सुकून मिल जाये
थोड़ा थम के अपनी साँसों से
गुफ़्तगू कर लूं,
ना जाने कब कहाँ ये जालिम मुझसे किनारा कर ले
फिर ना रह जाए मलाल
तुझको टोका ही नही,
दो घड़ी रुक के तेरे आगोश सोयी भी कहाँ ।
क्या करूँ जालिम तुमने ही भगाया हर पल,
तुझको थामु कैसे
तू हर पल मुझसे आगे निकल जाती है।।