Tuesday, September 25, 2012

20.सफर


सफर



सबको अपने हिस्से का सफर आप बसर करना होगा,

जिंदगीं तेरी खुद की है,

रुबरु तुझको आपने-आप से होना होगा I



सबको अपने हिस्से का सफर आप बसर करना होगा..........



चलते चलते गर कोइ रस्ते-सफर मिल भी गया ,

थाम के हाथ ,दो चार राहें-कदम चल भी लिया ,

भीड़ चौराहें की,

गुमनाम हर एक शख्स वहीं पर होगा I



सबको अपने हिस्से का सफर आप बसर करना होगा...........



राह के काँटें भी बदतरीन,तुझको चुनना होगा ,

पाँव जख्मी हो,लहु लाल कदम चलना होगा ,

जिंद्गी कम्बख्त सही,

तू हँसे या ना हँसे,अपने हिस्से का जहर पीना होगा I




सबको अपने हिस्से का सफर आप बसर करना होगा .............



बाँध के प्यार से अपना ही लिया गर कोइ तुझको ,

नज्म तेरी इनायत में कोइ गा के सुना दिया तुझको ,

तेरी बाबत में,

क्या कोइ मक्बरे-ताज शाह का नज्रराना होगा I



सबको अपने हिस्से का सफर आप बसर करना होगा ..............




तेरे रुखसत पेँ तेरे साथ तेरा क्या जायेगा ,

तेरा अपना ,तेरे पीछे धरा रह जायेगा ,

मन में बस सब्र,

वो भी पीछे से कहीं मेरी तरफ आता होगा I



सबको अपने हिस्से का सफर आप बसर करना होगा  .............



समाप्त


Wednesday, August 29, 2012

19.मेरे अपने


मेरे अपने 




आरामकुर्सी के हथ्थे
उनके स्नेह भरे हाथ ,
सुनहरी झुर्रियों के बीच
चमकती अनुभवी
आँखें
ऊँघा करती,झपकियाँ लेती
कभी चौंक कर आवाज देती
दिवारों से टकरा कर शब्द
पूरे घर की दौड़ लगाती
कण कण जोड़्ती
सबको साथ बांधे
फिर उन तक लौट आती I
कभी कभी प्यार से
खिंजती,झल्लाती मैं
उत्तर देती कभी,
कभी चुप लगा जाती I
थकती आँखे
मंद मंद मुस्काती ,
मेरे खमोशी की भाषा पढ्ती I
फिर भी  थकती साँसे,
यूही शोर मचाया करती I
आरामकुर्सी हवा में झुलती ,
चर्र चर्र
चर्र चर्र
फिर भी चहु ओर सन्नाटा व्याप्त है I
घर कि दिवारें रेत सी
सरसराती ढेर मेरे समग्र पड़ी है I
घून खाये सांकल ,
खोखली होती पुस्तैनी घर की नींव ,
मेरा परिचय पूछ्ती
मेरी जिंदगी,  
मेरे साथ निशब्द कर खड़ी है  I
मेरे हाथों में ग्लास पानी का ,
खाली कुर्सी के पास खड़ी
 मैं
निर्वाक टटोल रही
अपने अतीत के पन्नों को ,
जो मेरा अपना था
और
वह जो मुझे पीछे छोड़ गया  
उसकी अपनी थी मैं II


समाप्त
किसी का हमसे बिछुड़ना दिल पर घाव छोड़ जाता है और कहते है वक्त उन घावोँ को धीरे-धीरे भर दिया करता है I लेकिन क्या घर के बुजुर्ग के चले जाने से घर में हमेशा के लिये एक रिक्त स्थान नहीं बन जाता?घर के बुजुर्ग जो कभी उस घर के कर्ता थे और घर का परिचय जिनसे था ,  उनका पलायन घर की नींव हिला  दिया करता है II

Thursday, August 16, 2012

18.ध्वज






ध्वज




कर्मभूमि यह मृत्युभूमि है ,
कहाँ कभी किसको छोड़ेगी I
जीवन सरि,
चंचल उद्वेलित,
सतत नित्य युहीं दौड़ेगी  I
कुछ पल तो आ अब शीश धर लें
गौरव ध्वजा  फ़हरा रहा है I
सद्गति
संघर्ष समर्पण का यह उर्ध्व केतु ,
सपूतों का दर्प दरसा रहा है I
स्वतंत्र भू का अभिमान यह है ,
उस पर न्योछावर
नमन उसका ,
हाथ जोड़े, शीश नत,मन समर्पित
प्राण की अंतः शिला पर
सर्वोपरि धवज
लहरा रहा है I


स्वतंत्र है तू ,
गणतंत्र भू की I
क्या ध्वजा तेरा नहीं है?
या स्वतंत्रता के आत्ममद में,
 तु निरि क्या दिगभ्रमित है ?
गाँधी संजयो,
 इस धरा की,
निष्पंद  होकर  कर अवज्ञा ,
बस में नहीं क्या इन्द्रियां हैं ?
 तटस्थ बैठी है सब से 
उद्दिग्न भला क्यों मन तेरा है
 चाहतों का स्त्रोत मानस ,
मरुस्थल सा जैसा सुख पड़ा है I
या  यों कहो 
ह्रदयस्थित अज्ञान समुद्भव,
बेड़ियों से जकरा पड़ा है I


क्या कभी देखा है तुमने ,
मंदिरों में ईश  बैठे I
या किसी मस्जिद के प्रांगन ,
अल्लाह को सेज लेटे I
है  कहीं अल्लाह जग में ,
ईश को गर तुमने  देखा ,
होगा स्वरुप सनातन दिव्य कोइ
बापू ,
सा कोई अनन्तवीर्य शख्स होगा I
कामनाओं से विनिवृत होकर ,
सुख-दुःख द्वंदों से विमुक्त होकर  ,
था किया अर्पण सभी कुछ
दैवी संपद गाँधी सा होगा I
कर नमन ,
यह निज धर्म तेरा ,
अन्यथा
देश कर्ज तुझ पर खुद हँसेगा I

हर दिन प्रातः लाल रक्तिम ,
स्वतः क्षितिज पर आती रहेगी I
साँझ ढलते तिमिर धन में ,
 छिप निशा  में  सो रहेगी I
सिद्धि –असिद्धि द्वंद जीवन गति है ,
नित्य अवध्य चलती रहेगी I
कुछ  क्षण लुटा गर देश पर जो ,
काल चक्र
क्याँ अविरुद्ध होगी ?
व्यर्थ दिनचर्या में पड़कर ,
स्वर्णिम पलों  से तू छिटकती I
मातृभूमि यह देश
तेरा,
निज कर्त्तव्य से तू क्यों विमुखती I


हाय री तु मृदु,कंचन सी काया
अपराधबोध क्यों सर तुं सर है लेती ,
तू है जननी,भू,जननी है सबकी
उस धरा को क्यों तू है तजती I
बाँटतीं चतुर्दिक ज्ञान ज्योति ,
निज रही क्या मूढ़ अबतक ?
कर सुध,
वो बेसुध पगली,
ये स्वर्ण माँटी तुझको तक रहा है
अपनी विभा प्रबुद्ध कर तु ,
अन्यथा,
तेरा अन्तमॅन तुझको तज रहा है I
उठ,
खोल,
ज्ञान चक्षु शुभ्र मन का,
तेरा देशधर्म,
तुझको है निभाना I
शैल शिखरों पर सुशोभित ,
शीर्ष धवज,
पर है तुझको शीश नवना II



समाप्त




१५ अगस्त स्वतंत्रता कि ६५ वर्षगाँठ..... हिनदुस्तानीयों क सबसे पावक त्योहार .....
लेकिन लोग इसे त्योहार कम छुट्टी के रुप में अधिक मनातें हैं I स्वतंत्रता के स्वतः मद में हम सबों को लगने लगा है कि ये स्वतंत्रता बस हमें युहीं मिल गयी है I हम शायद भुलते जा रहें हैं कि स्वतंत्र भारत को पाने के लिये और इसे इस मुकाम तक पहुँचाने के लिये देशभक्तों ने क्या क्या बलिदान नहीं कियें हैंI खाश कर दुःख तब और भी ज्यादा होता है जब कुछ देशवासी पूरे दिन की छुट्टी से १५-२० मिनट का भी समय भारतवर्ष के घ्वज के समग्र शीश झुकाने के लिये नहीं निकाल पातें . खाश कर महिलाएं….क्या एक दिन  भी अपने अपने दिनचर्या के असंख्य पलों से हम कुछ मिनट अपने देश के लिये नहीं निकाल सकतें ???????



Monday, July 23, 2012

17.कथा






कथा







कथा बनी उस जीवन की
जो जीवन एक
बावड़ी की,
जीवन-मरण की  
अनंत प्रवाह में
स्वत: चाल में चल रही थी 
विद्रूप समय था 
काल उसका
काल पर वह हँस रही थी 
चाह थी,आकाश छू लूँ 
कर्म-बेङियों से 
जकङी पङी थी I 

औंधे सपने
वो तरसती,
छुने अम्बर को
बढा कर हाथ से
सूरज पकड़्तीI
था गगन पर दूर उससे
राख होते पाँव गुम थे,
फिर भी संम्भाले थाह
मन की ,
झुलसे बदन
सरपट घिसटतीI

अपने कनक की
अप्सरा थी,
गुंगे झरोखे
अभीष्ट खोले,
ये था
निमंत्रण
या
समर्पण,
होगा कुंवर वो साथ हो लेI
झूले मे उसको झुलाये
नीले गगन पर जो सुलाये
बीन के पाषाण पथ से,
हर्ष वीचि संग डोलेI  

चल रहा था
साथ उसके,
दायित्यो का कारवाँ भी
विगत कंधे सो रहा था,
वो अयन को रौंदती थीI
मंदाकिनी,
चंडालिका थी
कर्म बेड़ी पग बंधी थी
आँख भींजे 
चार साँसे,
वक्ष छुपके रो रही थीI

भीड़ मैं बढती गयी वह,
खुद का अपना अर्घ्य देकरI
भर मन तृषा,
सब कुछ धरा है,
पारितोषित
रस्ते पड़ा हैI
तेरे हिस्से
अभीष्ट ज्यादा ,
क्या कभी तुझको मिलेगा
कर संतोष ,
ये प्रारब्ध तेरा,
क्या है तेरा
 जो तुझसे छिनेगाI

उद्दाम होती क्यों 
नासमझ तू,
यथार्थ 
जीवन सत्य हैं येI
तेरे सर पर पैर रख कर
इतिहास,
तुझको ले उड़ेगाI
है निरर्थक,
संघषॅ
छोड़ो,
कॉपता ये जिस्म तुझसे
काल,
थामे
अंत: मुड़ेगाI


व्यर्थ कोमल कल्पनायें,
संग्राम जीवन
व्यर्थ आहेंI
अंतर्मन की स्वेत ज्योती
थक कर के 
रोती हार मन मेंI
सबकी
यही मनोदशा है,
द्वंद सबका 
सम्मुख खड़ा हैI
जो कुछ है दर्शित
स्वप्न भर है,
तोष मन की बस
अमर है I



समाप्त


विद्रुप –Ugly         

वीचि - Wave

विगत - Past

तृषा - Hunger

उद्दाम- Violent 
अभिष्ट - Wish
मंदाकिनी - Ganges
कनक - Heaven
अभीष्ट - Desire
समर – Fight



हर किसी को अपने हिस्से की जिंद्गी मिली है उसे वह खुश होकर जिये या दु:खी होकर ,औरो को कोइ फर्क नही पड़्ता, दु:खी रह कर वह अपना ही नुकसान कर बैठता हैIये कविता मेरे गिर्द जी रहे उस शख्शियत की है,जो यथार्थ से परे सपनो की दुनिया मैं जीता है,उसकी चाहत उन सभी की है जो सामने दुसरों के पास है,और उसी चाहत के सपनों मे वह आपनी छोटी सी प्यारी सी दुनियां को नजरअंदाज कर बैटता है Iसपने देखना बुरा नही है ,बुरा है भविष्य के सपनों को अपने आज के वर्तमान पर हावि होने देना I




Wednesday, January 4, 2012

16.वक्त





वक्त

हाथों से वक्त को थामें, 
अनागत विभव कर संचित,
मैं अरसे बाद घर को लौटा I
दीवारों के बीच घर आँगन में
मात्र तिक्त रिक्तता थीं………….
चंद लिफाफें मेरे रिश्तों के,
दरवाजों के नीचे फर्श पर
बिखड़े पड़ें थे I
मेरे प्रत्युतर की आस में,
धूल में दफ्न हो
समाधिस्त यूहीं धरे थे I
विगत मीठे रिश्तों की,
सौंधी खुशबू घर के अंदर
सिहकती निस्तेज पड़ी थी  I
इस एकाकी पथिक की 
जीवन -जिज्ञासा 
घर के चौखट चुप खड़ी थी I

  

था भरोसा जिंदगी के सिरे,
मेरे पोरों से बंधे
साथ चल रहे होंगे अब तक I 
गर्व उच्छवसित बढता गया,
खिचती गई
रिक्तता की धूम-रेखा
सिंधु तट तक I
मेरे पिछवाडे अहाते सुख,
चैन की नींद सपनों में
कहीं सोता रहा था I
मै चंद सिक्कों कों संभालें
दिग्ज्ञान-शुन्य,क्लांत
पल पल क्षीण होता रहा था I



कल के सपने आँखों में संजोये 
अपनी मुठ्ठी, अँगुली थामें 
कल रात लौटा अपने घर जब I
धुप्प अँधेरा, निर्वात आँगन 
मैं एकांकी घर के प्रांगन I
मेरी प्रतिक्षा में थक के शायद 
हो पृथक सब जा चुके थे I
वर्षों सँजोया दर्प मेरा 
लावें सा पिघल हाथों से सरका 
निस्तेज आँखें,
 मूक मैं  खड़ा था ,
मेरी शिराओं से बह कर
मेरा परिचय अन्तः धरा था I
  


था निरर्थक मेरा प्रत्यागत,
मेरी प्रतीति
यूहीं व्यर्थ गई I
मै घड़ियाँ गिनता रहा
समय-काल,रेत की तरह  
हाथ से फिसलता गया I  
कल संजोने में लगा
मैं आज के हर एक पल को
बेदर्द सा सरकाता रहा,
जीवन अलभ्य मुझपर हँस कर,
मेरा परिचय मेरे अपनों से ही
बिसराता रहा II










तिक्त –Bitter
अनागत-future
विभव –prosperity
प्रतीति -feelings