मन डरता था लहरों से
क्षीण पड़ा क्यो काल निरंतर,
आज दर्पण से पूछ ही डाला
"क्या यही जिंदगी' ?
दिया पलट के उसने प्रतिउत्तर ,
बड़े जतन से रंग भरा था
मणि से सज्जित चादर दी थी
फिर क्यों मूरख पूछ रहा है,
"क्या यही जिंदगी"?
मैंने बोला रोष दिखा कर,
मुझसे ज्यादा तुमने भर दी
उनकी झोली में खुशियाँ,
मेरे दामन में क्यो डाला
इतने सारे कंकड़ भी ।
भाँप गयी मन की दुर्बलता
मृगनयनी ने हँस कर टोका
अगर चाहिए उनकी खुशियाँ
उनके ग़म भी लेने होंगे ,
थोड़ी चाहत के इस चक्कर में
चार गुना दुःख ढोने होंगे ।
तस्वीरों को देख कभी भी
उनकी खुशियाँ तुम मत आंको,
अगर पढ़ सके उनकी भाषा
तब ही उनके मन में झांको ।
जग चिंताओं से मुक्त कहाँ तुम
व्यर्थ चिन्ताओं में घिर जाते हो,
साध लो अपने मन की वीणा
फिर जीने में रस आएगा।
कहाँ पड़े हो इन पचरों में
अपने मन के अंदर देखो ,
अगर ढूंढ ली अपनी खुशियाँ ,
फिर सबकी खुशियों में तुमको
अपना भी कुछ मिल जाएगा ।।
Sunday, April 2, 2017
36.हाँ यही जिंदगी
35 सपनें
मुझे उन चमकती आँखों के सपने पढ़ना अच्छा लगता है ।
सपनों के महल कितने अपने होते हैं ।
घर की दीवार जहाँ सोने की ,छत चाँदी की होती है ।
हर तरफ दीवारों में खिड़कियाँ
और खिड़कियों से छन करआती रुपहली धुप की नरमी
रुपहली धुप मेरी मुठ्ठी में समाती तो नहीं
बस मेरी आँखों से उतर मुझको अपना सा बना देती है ।
ओ मुझपर ,मेरे होने का गुमान आया था अभी,
मुझे पिघला के फिर तुम जैसा बना देती है ।
आओ ,मिलकर हम तुम एक सपना देखे ।
एक सपना ही तो है ,देखने में भला अपना जाता क्या है ।
शायद किसी रोज साथ चलते चलते
ओ तुमसे मुखातिफ़ होकर
तुमसे तुम्हारे घर का पता गर पूछ लिया ,
मैं वही पास खड़ी तेरे सपनों का हक़ीक़त देखूंगी ।।
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