मैंने देखा है...
मैंने
यहाँ लोगों कों
शीशों
के दीवारों के बीच देखा है
अपने
इर्द गिर्द खिचीं
अपनी
लक्ष्मण रेखा की परिधि
में
सीमाबद्ध होकर
निर्बाध
भटकते हुये देखा है
देखा
है उनके चारों ओर
रेशमी
धागें लिपटे हुए
छुप
के कोया की दीवारों में
कीड़ों
सा रेंगते देखा है
उन
धागों के सिरों कों
अपनी हाथों से कस कर थामें
फिर भी गड्डमड्ड
किनारों कों
आपस
में उलझते देखा है
शीशों
में खुद कों देख कर
आप
ही मैं से सवाल पूछते
और
स्वर की प्रतिध्वनि के
उत्तर
पर सिसकते देखा है
कभी
किसी गैर का क्रंदन
दीवारों
कों चीरता यदा गुजरा भी सही
टकरा
के भित्ति से लौटती
या
दीवारों कों छन्न से भेद
किलों
कों दङकाते हुये देखा है
वो
आरसी तरक कर भी
टुकड़ों
में वही आसपास पड़ा था
बस
उस शख्श के बिम्ब को
हजारों
में बटतें हुये देखा है
उनको
दङके किनोरे से
कभी
निकलते नहीं देखा
बस
लहूलुहान खुद कों
खुद
में दफनाते हुये देखा है
मैंने
यहाँ लोगो को
शीशे
के दीवारों के बीच देखा है............