Wednesday, December 16, 2015

26.मुझे साथ लिए चल


मुझे साथ लिए चल
ठहर जा भोर की किरणें ,
मुझे साथ लिए चल
थक के सफर में, रात कहाँ सोयी मैं
तुमने बिस्तर के सिलबटो में,
ओस की बूंदों को महसूस किया था की नहीं
सियाही मेरी आँखों में जो तुमने पढ़ा,
ओ बेमानी नहीं मेरा सपना था
डर है मुझे नींद ना आ जाए कहीं ,
ले चलो साथ, शहर साथ मेरे चलता रहे
जब कभी साथ ना सांस ना ये शहर होगा
तू मुझे छोङ उसी चौराहे पर ,
फिर पलट कर ना एक बार मुझको तकना
मैं उसी रात मेरे सपनो को,
स्याह आकाश के सितारों में पिरोऊँगी
फिर हलके हाथों की थपकी दे कर,
रात के सिरहाने में सो जाउंगी II

Tuesday, June 9, 2015

25.निर्भया

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"निर्भया"


सब कहते हैं मैं आजाद हूँ
स्वछंद गगन में अपने कुतरे पँखों से
उड़ने के लिए  I
क्षत-विक्षत पँख ही नहीं,
मेरे आदर्श
मेरे कंधों पर बैठे हैं I
मेरा वजन कुछ और बढाते
ये बेड़ियाँ
इस निरंकुश समाज की I
समाज जो
आधुनिकता की
सफ़ेद चादर ओढ़े बैठा है I
मुझे उकसाता है ,
भङमाता  है ,
निर्भीक विचरण करने को I
मैं अंतरिक्ष छूने हाथ बढाती हूँ  
सहस्त्र हाथ ,
नर शक्ति-परिक्षण में
उद्वेलित  
मेरे परों को
क्षत-विक्षत कर
बेफिक्र आगे बढ जाते हैं I
मेरे
स्वप्न
आदर्श
लक्ष्य
रक्त-रंजित ,खंडित,जर्जर I
काया नग्न,निष्प्रभ ,निर्बल
कस के मुठ्ठी में धरा ,
मेरा विश्वास ,
 दिग्भ्रमित हो 
रावण में राम
कंस में कृष्ण तक रहा है II

नग्न थी पड़ी मैं 
केशव हमारे 
 मर चुके थे   
भीड़ सब नंगी खड़ी थी 
मुझको कहाँ से वस्त्र देती 
हो विवश फिर  
क्लांत होकर
प्राण मेरा  उड़ चला  है I
विभक्त पँख ,
रुग्ण ,लहूलुहान शव
सड़क पर
लावारिस धरा है ,
नम विलोचन 
दो अश्रु मेरे 
प्रश्न  थामे 
निस्तेज अब भी
 खुला  हैं I
शमशान के
सन्नाटे में  फिर
दाँव पर
यज्ञसेनी लगी है
मेरी चिता की अग्नि ज्वाला में
गाँधी की लाठी
धूं-धूं
आज जल रही है I

Saturday, June 6, 2015

24.पापा की बेटी

पापा की बेटी


पापा की बेटी


लघु जीवन की कथा बङी थी
मैं क्या कुछ कर पाया था,
सूर्योदय के प्रथम काल में
नव कोपल उग आया था I
सिक्त स्नेह से गले लगा कर
मैं खुद पर इतराया था,
मंद पवन के हलकोरों में
पुलकित हिय-स्नेह झूलया था I
तेरे जीवन का सब खारा जल
मैं शंभु बन पी जाता था,
हृदय समाहित उर क्रंदन तेरा
सस्वर गीत सुनाता था I
समय भागता प्रतिपल प्रतिक्षण
मैं तुझ संग दौङ लगाता था,
कर संपूर्ण समर्पण जीवन अपना
तेरी परिमित धुरी बतलाता था I
इस विधि की निष्ठुर परंपरा में
जैविक  सत्य निभाना था ,
कर दिया सर्वश्व दान हमने
था क्या मेरा,जो मुझे गवाना था I
सिहरा दिगंत जब डोली तेरी
ज्यों त्तोलक कदम बढता था ,
मृदु बादल मेरे नयनों से
खारा जल बरसाता था  I
पार खङी तू मुझको तकती
मैं विह्वल इधर बिलखता था ,
धुँधलाती क्षिति रेखा में भी
तेरी ही छवि निरखता था I
एकाकी का कर मैं अनुभव
अविरल आँसू रोता था ,
एक पहेली अनबुझ बतला कर
तुझसे निज नेह छुपाता था I
तेरी स्मृति पाथेय बनी है
मन तृष्णा में मैं जलता था ,
थाह मन सस्मित सम्मुख खङी है
मन व्याकुल, जी घबराता था I
था तटस्थ निर्वाण मुझसे
शेष अगम्य जीवन बिताना था ,
ध्येय नवीन नूतन कुछ अपना
मुझको फिर एक बार बनाना था I




Saturday, May 9, 2015

23.पिछले साल



पिछले साल


कभी बैठा करते थे
महफ़िल ना सही ,टूटे पलंग के  कोने पे
चंद लाईनें मैं कहती ,तुम सुनते
तुम बोलते, मैं देखती
चाँद दस्तक देता
सूरज को बुला लाता था I



आज फिर पन्नों कों पलटा मैंने
तल्खी आवाज भी सहमती सी
खामोश दरवाजो से गुजरती गई  
कल का चाँद अब तक
मेरी खिङकी पें खङा
तेरे आने की टोह में
मेरी आँखों कों सुनता अब तक बैठा है II