Monday, July 23, 2012

17.कथा






कथा







कथा बनी उस जीवन की
जो जीवन एक
बावड़ी की,
जीवन-मरण की  
अनंत प्रवाह में
स्वत: चाल में चल रही थी 
विद्रूप समय था 
काल उसका
काल पर वह हँस रही थी 
चाह थी,आकाश छू लूँ 
कर्म-बेङियों से 
जकङी पङी थी I 

औंधे सपने
वो तरसती,
छुने अम्बर को
बढा कर हाथ से
सूरज पकड़्तीI
था गगन पर दूर उससे
राख होते पाँव गुम थे,
फिर भी संम्भाले थाह
मन की ,
झुलसे बदन
सरपट घिसटतीI

अपने कनक की
अप्सरा थी,
गुंगे झरोखे
अभीष्ट खोले,
ये था
निमंत्रण
या
समर्पण,
होगा कुंवर वो साथ हो लेI
झूले मे उसको झुलाये
नीले गगन पर जो सुलाये
बीन के पाषाण पथ से,
हर्ष वीचि संग डोलेI  

चल रहा था
साथ उसके,
दायित्यो का कारवाँ भी
विगत कंधे सो रहा था,
वो अयन को रौंदती थीI
मंदाकिनी,
चंडालिका थी
कर्म बेड़ी पग बंधी थी
आँख भींजे 
चार साँसे,
वक्ष छुपके रो रही थीI

भीड़ मैं बढती गयी वह,
खुद का अपना अर्घ्य देकरI
भर मन तृषा,
सब कुछ धरा है,
पारितोषित
रस्ते पड़ा हैI
तेरे हिस्से
अभीष्ट ज्यादा ,
क्या कभी तुझको मिलेगा
कर संतोष ,
ये प्रारब्ध तेरा,
क्या है तेरा
 जो तुझसे छिनेगाI

उद्दाम होती क्यों 
नासमझ तू,
यथार्थ 
जीवन सत्य हैं येI
तेरे सर पर पैर रख कर
इतिहास,
तुझको ले उड़ेगाI
है निरर्थक,
संघषॅ
छोड़ो,
कॉपता ये जिस्म तुझसे
काल,
थामे
अंत: मुड़ेगाI


व्यर्थ कोमल कल्पनायें,
संग्राम जीवन
व्यर्थ आहेंI
अंतर्मन की स्वेत ज्योती
थक कर के 
रोती हार मन मेंI
सबकी
यही मनोदशा है,
द्वंद सबका 
सम्मुख खड़ा हैI
जो कुछ है दर्शित
स्वप्न भर है,
तोष मन की बस
अमर है I



समाप्त


विद्रुप –Ugly         

वीचि - Wave

विगत - Past

तृषा - Hunger

उद्दाम- Violent 
अभिष्ट - Wish
मंदाकिनी - Ganges
कनक - Heaven
अभीष्ट - Desire
समर – Fight



हर किसी को अपने हिस्से की जिंद्गी मिली है उसे वह खुश होकर जिये या दु:खी होकर ,औरो को कोइ फर्क नही पड़्ता, दु:खी रह कर वह अपना ही नुकसान कर बैठता हैIये कविता मेरे गिर्द जी रहे उस शख्शियत की है,जो यथार्थ से परे सपनो की दुनिया मैं जीता है,उसकी चाहत उन सभी की है जो सामने दुसरों के पास है,और उसी चाहत के सपनों मे वह आपनी छोटी सी प्यारी सी दुनियां को नजरअंदाज कर बैटता है Iसपने देखना बुरा नही है ,बुरा है भविष्य के सपनों को अपने आज के वर्तमान पर हावि होने देना I