Wednesday, January 4, 2012

16.वक्त





वक्त

हाथों से वक्त को थामें, 
अनागत विभव कर संचित,
मैं अरसे बाद घर को लौटा I
दीवारों के बीच घर आँगन में
मात्र तिक्त रिक्तता थीं………….
चंद लिफाफें मेरे रिश्तों के,
दरवाजों के नीचे फर्श पर
बिखड़े पड़ें थे I
मेरे प्रत्युतर की आस में,
धूल में दफ्न हो
समाधिस्त यूहीं धरे थे I
विगत मीठे रिश्तों की,
सौंधी खुशबू घर के अंदर
सिहकती निस्तेज पड़ी थी  I
इस एकाकी पथिक की 
जीवन -जिज्ञासा 
घर के चौखट चुप खड़ी थी I

  

था भरोसा जिंदगी के सिरे,
मेरे पोरों से बंधे
साथ चल रहे होंगे अब तक I 
गर्व उच्छवसित बढता गया,
खिचती गई
रिक्तता की धूम-रेखा
सिंधु तट तक I
मेरे पिछवाडे अहाते सुख,
चैन की नींद सपनों में
कहीं सोता रहा था I
मै चंद सिक्कों कों संभालें
दिग्ज्ञान-शुन्य,क्लांत
पल पल क्षीण होता रहा था I



कल के सपने आँखों में संजोये 
अपनी मुठ्ठी, अँगुली थामें 
कल रात लौटा अपने घर जब I
धुप्प अँधेरा, निर्वात आँगन 
मैं एकांकी घर के प्रांगन I
मेरी प्रतिक्षा में थक के शायद 
हो पृथक सब जा चुके थे I
वर्षों सँजोया दर्प मेरा 
लावें सा पिघल हाथों से सरका 
निस्तेज आँखें,
 मूक मैं  खड़ा था ,
मेरी शिराओं से बह कर
मेरा परिचय अन्तः धरा था I
  


था निरर्थक मेरा प्रत्यागत,
मेरी प्रतीति
यूहीं व्यर्थ गई I
मै घड़ियाँ गिनता रहा
समय-काल,रेत की तरह  
हाथ से फिसलता गया I  
कल संजोने में लगा
मैं आज के हर एक पल को
बेदर्द सा सरकाता रहा,
जीवन अलभ्य मुझपर हँस कर,
मेरा परिचय मेरे अपनों से ही
बिसराता रहा II










तिक्त –Bitter
अनागत-future
विभव –prosperity
प्रतीति -feelings