Thursday, March 31, 2016

27.बाँझ

बाँझ
समाज का   एक और  सच ,जहाँ बच्चे ना होने पर औरत  को ही  बाँझ "कहा "जाता हैं और पुरुषों के लिए कोई संबोधन  शायद हिंदी शब्दावली में बना  हीं नहीं I
1473.1L

बाँझ

मैं थी एक नन्ही सी बिटिया
बाबुल को  भार हटाना था,
चंद कौङियाँ ,मोल-भाव कर
दूर देश भिजवाना था  II
पिता तुल्य सा दीखता शौहर
             कौतुहल से जब मैंने घूँघट से झांँका था,
      तीक्ष्ण वासना थी ,उसकी आँखों में
 अपनी आँखों से आँका था II
तिन-तिन कर सब उजड़ा बचपन
नियति थी, ये मैंने जान लिया ,
इसके संग बिताना मुझको
गरल सत्य था  ,
पर जैसा था, मन मान लिया II
तक-तक कर यूँ साल गुजारें
   दसियों सावन आके गुजर गए ,
    ताक रहा था अब भी सूना पलना
         यहाँ विधाता, फिर देने से चूक गए II
बाँझिन कह के सबने ताड़ा
मेरी आप व्यथा ना कोई पूछ रहा,
करवट दर करवट साल जगी मैं
सच ,मेरे बाजू निस्तेज पड़ा रहा II
अपनी मूँछे ऊँची करने
           तुने ना फिर तनिक संकोच किया ,
खुद दुःशासन बन कर तुने
     स्वाभिमान को नग्न किया II
तुमने मेरा हाथ पकड़ कर
नरक द्वार से ठेला था ,
सिन्दूर,
चौखट बैठी ताक रही थी
गोद भराई का रश्म,बड़ा अलबेला था II
कहाँ छुपा था ,सर ऊँचा तेरा
जो अपने रिश्तों को बेच रहा ,
     परितोषित क्या मैं द्युत क्रीड़ा की ?
       जो तू अपनी शर्तों पर लुटा रहा II
पाप –धर्म का ज्ञान नहीं पर
बन कुंती ,पत्नी धर्म निभाया था ,
अब तक रही थी अनबुझ जिससे
वह क्षण ,वह सुख मैंने शायद पाया था II
प्यार किसे कहते ,ना जानू
पता नहीं ,कब शुरू हुआ ,
अँधियारे में जिसे तराशा
    तिमिर व्योम में लुप्त हुआ II

अपने होने कि खुशखबरी
तुमने पुरे गावँ बंटवायी थी ,
मेरा सहर्ष स्वीकृति पाकर
निष्ठुर तुने ,
उस दिन होली खूब मनायी थी II
 आँगन की चौखट से जब भी
          कल का सच ,यदा-कदा गुजरता है ,
तू झट अपनी कोरी धोती से
ललने का सर ढक देता है II
मैं इतराती गोद लिए सच
उस रात से नयन चुराती हूँ ,
मैं भी आँख बचा के सब से
दो आँसू हर रात बहाती हूँ II