"निर्भया"
सब कहते हैं मैं आजाद हूँ
स्वछंद गगन में अपने कुतरे पँखों से
उड़ने के लिए I
क्षत-विक्षत पँख ही नहीं,
मेरे आदर्श
मेरे कंधों पर बैठे हैं I
मेरा वजन कुछ और बढाते
ये बेड़ियाँ
इस निरंकुश समाज की I
समाज जो
आधुनिकता की
सफ़ेद चादर ओढ़े बैठा है I
मुझे उकसाता है ,
भङमाता है ,
निर्भीक विचरण करने को I
मैं अंतरिक्ष छूने हाथ बढाती हूँ
सहस्त्र हाथ ,
नर शक्ति-परिक्षण में
उद्वेलित
मेरे परों को
क्षत-विक्षत कर
बेफिक्र आगे बढ जाते हैं I
मेरे
स्वप्न
आदर्श
लक्ष्य
रक्त-रंजित ,खंडित,जर्जर I
काया नग्न,निष्प्रभ ,निर्बल
कस के मुठ्ठी में धरा ,
मेरा विश्वास ,
दिग्भ्रमित हो
रावण में राम
कंस में कृष्ण तक रहा है II
नग्न थी पड़ी मैं
केशव हमारे
मर चुके थे
भीड़ सब नंगी खड़ी थी
मुझको कहाँ से वस्त्र देती
हो विवश फिर
क्लांत होकर
प्राण मेरा उड़ चला है I
नग्न थी पड़ी मैं
केशव हमारे
मर चुके थे
भीड़ सब नंगी खड़ी थी
मुझको कहाँ से वस्त्र देती
हो विवश फिर
क्लांत होकर
प्राण मेरा उड़ चला है I
विभक्त पँख ,
रुग्ण ,लहूलुहान शव
सड़क पर
लावारिस धरा है ,
नम विलोचन
दो अश्रु मेरे
दो अश्रु मेरे
प्रश्न थामे
निस्तेज अब भी
खुला हैं I
खुला हैं I
शमशान के
सन्नाटे में फिर
दाँव पर
यज्ञसेनी लगी है
मेरी चिता की अग्नि ज्वाला में
गाँधी की लाठी
धूं-धूं
आज जल रही है I