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आजकल खिलखिलाहट नही आतीओ पिछले पहर में होठों पर थी
माँ के घर अपनी आलमारी में
शायद लॉकर में छोड़ रखा
चाभी भी नही मिल रही
निकाल, किसी के हाथ भिजवा भी देती
शहर आते ,घर से चौराहे के बीच
शायद वहीं कहीं गिर गयी होगी
या किसी कमब्खत ने पॉकेट मार ली हो।
एक पतली सी कोने में अब तक
थोड़ी सी बचा रखी थी
ये भागती दौड़ती सड़कों पर
कल किसी टायर के नीचे दबती चली गयी
बस एक छोटी सी खामोशी बची पड़ी है
आँखों की शिराओं से
मेरे हाथोँ पर टपकती
ना जाने कब मेरे तलवों को छूती
इन सख्त सड़कों पर घुल सी गयी।।
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